कुछ ही फिल्में ऐसी होती हैं जिनके अंत में आप अंत का अंदाजा लगा चुकने के बावजूद सहमे से बैठे उस पल का इंतजार करते रहते हैं जब फिल्म अपने सबसे तनावयुक्त मोड़ पर होती है और किसी भी पल आपकी आह निकलने वाली होती है। इस लिहाज से बिमल रॉय को कई चीजों का उस्ताद मानने के साथ साथ क्लाईमैक्स का भी मास्टर मानना पड़ेगा। याद कीजिए देवदास का वह अंतिम दृश्य जब देवदास यानि दिलीप कुमार पल पल मौत की तरफ बढ़ रहे हैं और दर्शकों का कलेजा मुँह को आता जा रहा है मानो देवदास की मौत के साथ ही बाहर निकल जाएगा। यहाँ बात बंदिनी की हो रही है जिसका क्लाईमैक्स एक अमर गीत का साथ पाकर और भी उल्लेखनीय और यादगार बन गया है।
नूतन यानि कल्याणी जेल से रिहा होने के बाद अपने कड़वे अतीत को भुला कर एक सुनहले भविष्य की ओर बढ़ रही है। एक सज्जन और होनहार डॉक्टर ने उसका हाथ थामने की पेशकश की है और कल्याणी ने उस तक अपनी सारी रामकहानी पहुँचा दी है। कुछ भी नहीं छिपाया कि कैसे उसके हाथों एक हत्या हो चुकी है और कैसे वह एक अच्छे घर की बेटी से जेल की कैदी तक का सफर काट चुकी है। फिर भी डॉक्टर उसमें एक सेवा भावना वाली लड़की व अपनी प्रियतमा देखता है और शादी के विचार पर अडिग है। और तो और डॉक्टर की माँ भी कल्याणी की कहानी सुन कर द्रवित हो चुकी हैं और उसे अपनी बहू बनाने की अग्रिम शुभकामना भेज चुकी हैं। वह जेल की एक सहायिका के साथ रेल के सफर के लिए तैयार है जो उसके खूबसूरत भविष्य की तरफ जाता है। सब कुछ ठीक होता है कि तभी उसका अतीत उसकी आँखों के सामने आकर अचानक खड़ा हो जाता है। अशोक कुमार यानि बिकास बाबू, जो उसके लिए सब कुछ थे और जिनके शादी के न निभाए जाने वाले वादे के कारण उसने अपना घर गाँव पिता सब कुछ खो दिया, उसके सामने है, बीमार और पस्तहालत। वह उनको दवाई पिलाती है और वहाँ से अपनी सहायिका के साथ बाहर निकल आती है। उसकी ट्रेन का समय हो रहा है। बिकास बाबू से जिन बातों की शिकायत थी, वह सारी दूर हो चुकी है। उनके एक मित्र से उसे वहीं पता चल गया है कि बिकास बाबू ने पार्टी के दिए वादे को रखने के कारण अपने प्यार की कुरबानी दी। उनका कोई दोष नहीं है और वह पहले जैसे ही मासूम और महान हैं। इस समय उनकी तबीयत बहुत खराब है, उन्हें छूत की बीमारी लग चुकी है और वह अपने गाँव जाकर ही मरना चाहते हैं। कल्याणी की ट्रेन ने सीटी दे दी है और उसकी सहायिका उसे लेकर ट्रेन में चढ़ चुकी है। बिकास बाबू अपने मित्र के साथ पानी के जहाज में जाकर बैठ रहे हैं। पार्श्व में गीत बज रहा है, "मन की किताब से तू मेरा नाम ही मिटा देना, गुण तो न था कोई भी, अवगुण मेरे भुला देना। मुझे आज की विदा का मरके भी रहता इंतजार..." कल्याणी बार-बार पलट कर उस स्टीमर की तरफ देख रही है जिसमें बिकास बाबू जा रहे हैं। उसका मन अपने सच्चे और निश्छल अतीत और सुनहले भविष्य के बीच फँसा हुआ है। गीत आगे बढ़ता है, "मत खेल जल जाएगी, कहती है आग मेरे मन की। मैं बंदिनी पिया की, मैं संगिनी हूँ साजन की। मेरा खींचती हैं आँचल, मन मीत तेरी हर पुकार..." और यह मूक पुकार उसे ट्रेन में आगे नहीं बढ़ने देती। टेक आती है "ओ रे माँझी...।" और साथ ही ट्रेन अपनी अंतिम सीटी देती है। इसी पर कल्याणी अपने और बिकास बाबू के बीच के उस छोटे से फासले को पार करने के लिए कूद पड़ती है जो ट्रेन से उस स्टीमर के बीच तक का ही है। उसके साथ आई सहायिका उसे रोकती है और कहती है, "पागल न बनो, हमारा रास्ता उधर नहीं।" कल्याणी रोती हुई कहती है, "मुझे जाने दीजिए, मेरा रास्ता उधर ही है।" ये वही रास्ता है जिस पर चलना शुरू करने में तो बहुत सोचना पड़ता है लेकिन चलना शुरू कर देने पर लगता है कि इसके अलावा कोई ठौर हो ही नहीं सकता था। बहरहाल, इस अंतिम दृश्य में जो खिंचाव और संतुलन है, वैसा बहुत कम फिल्मों में देखने को मिलता है। कल्याणी का स्टीमर पर पहुँचना और बिना कुछ कहे पहले बिकास बाबू के पैरों में फिर उनके सीने से लग जाना बहुत कुछ कह देता है। बिकास बाबू की वो आँखें, जब वो अचानक अपने सामने कल्याणी को पाते हैं, एक आर्द्रता के साथ उस संतोष से भरी हैं जो किसी दुआ के कबूल हो जाने पर आती हैं। दोनों में से किसी को कुछ कहने सुनने की कोई जरूरत नहीं है। कहना सुनना बहुत हो चुका है। दोनों एक दूसरे के गले लग जाते हैं और वही मुखडा फिर से बजता है, "मैं बंदिनी पिया की, मैं संगिनी हूँ साजन की। मेरा खींचती हैं आँचल, मन मीत तेरी हर पुकार..."
जरासंध के उपन्यास 'लौहकपाट' पर आधारित नवेंदु घोष की पटकथा वाली यह नायिका प्रधान फिल्म हिंदी फिल्मों में मील का पत्थर मानी जाती है और नूतन का अभिनय इस फिल्म में शीर्ष पर दिखाई देता है। पूरी फिल्म में वह कम बोलती हैं और उनकी आँखें सब कुछ कहती हैं। उनके अभिनय में हर भाव दिखाई देता है चंचलता, शोखी, गंभीरता, उदासी और इंतजार लेकिन वहाँ एक स्थायी उदासी दिखाई देती है जो इस फिल्म में उनका स्थायी भाव है। उनकी उदासी ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को एक भावप्रणव अभिनेत्री दी जिन्होंने इस शानदार दिल को छूने वाली उदासी से एक से एक बढ़कर खूबसूरत फिल्में दीं।
गाँव के पोस्टमास्टर की बेटी कल्याणी देश की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे नौजवान बिकास बाबू से स्नेह रखती है। बिकास बाबू कल्याणी से शादी का वायदा करते हैं और गाँव से चले जाते हैं। बाद में कल्याणी को पता चलता है कि उन्होंने किसी और लड़की से शादी कर ली। वह गाँव के तानों से तंग आकार गाँव छोड़कर शहर चली आती है जहाँ उसे एक अस्पताल में नौकरानी की नौकरी इस वायदे के साथ मिल जाती है कि जल्दी ही उसे नर्स बनाने की व्यवस्था की जाएगी।
वहाँ एक कर्कशा मरीज की सेवा के दौरान उसे पता चलता है कि वही बिकास बाबू की पत्नी है और वह न जाने किस भावना के वशीभूत होकर उसे जहर देकर मार डालती है। उसे जेल भेज दिया जाता है। वहाँ जेल का डॉक्टर देवेंद्र यानि धर्मेंद्र उसकी कर्तव्यपरायणता से मोहित होकर शादी का प्रस्ताव रख देता है लेकिन अपने अतीत की भयावहता से आक्रांत कल्याणी इस शादी से मना कर देती है।
मधुर गीतों और दिल को छूने वाले संगीत से सजी इस फिल्म में सभी कलाकारों का अभिनय सहज और वास्तविक है। चाहे अशोक कुमार हों या छोटी सी भूमिका में धर्मेंद्र लेकिन फिल्म पूरी तरह से नूतन की है और वे पूरी सफलता से इसे अपने कंधों पर ले जाती हैं। बिमल रॉय के पसंदीदा कमल बोस का छायांकन यहाँ भी अपने शबाब पर है और एस डी बर्मन साहब को शैलेंद्र और गुलजार के लिखे खूबसूरत गीतों का सहारा मिला है। गुलजार ने बतौर गीतकार 'मेरा गोरा अंग लई ले...' से शुरुआत की थी। फिल्म के सभी गीत बेहतरीन और दिल को छूने वाले हैं चाहे मुकेश का गाया 'ओ जाने वाले हो सके तो...' या आशा जी का गाया 'ओ पंछी प्यारे साझ सकारे...', सभी गीत फिल्म को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं और सदाबहार हैं। 1963 में इस फिल्म को हिंदी में सर्वश्रेष्ट फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और इसने 1964 में फिल्मफेयर पुरस्कारों की झड़ी लगा दी थी। सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ट निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री सहित इसने सर्वश्रेष्ट कहानी और छायांकन का भी पुरस्कार बटोरा था।